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वास्तविकता का अवलोकन: जैसी वह है, न कि जैसे हम हैं

To read this article in English, please click  here . हम स्वयं को भाग्यशाली मानते हैं—पहले इसलिए, क्योंकि हम विश्वप्रसिद्ध परम पूज्य आचार्य श्री सुशील कुमार जी महाराज के प्रधान-शिष्य, श्री विवेक मुनि जी महाराज के संपर्क आएँ, जो आचार्य सुशील मुनि मिशन के संस्थापक-अध्यक्ष, हमारे पूज्य गुरुदेव और हमारे एक मित्र-दार्शनिक हैं; और फिर इसलिए—क्योंकि उन्होंने हमें उस तकनीक से परिचित कराया जिसे स्वयं बुद्ध ने सिखाया—एक ऐसी साधना जिसने हमारी जीवन-यात्रा को गहराई से प्रभावित किया है। पच्चीस शताब्दियों पूर्व, सिद्धार्थ गौतम ने मानव दुःख के मूल को समझने के उद्देश्य से एक आध्यात्मिक यात्रा प्रारंभ की। इस यात्रा के अंत में उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया और इसके पश्चात, अपने जीवन को इस मुक्ति के मार्ग को अन्य लोगों के साथ साझा करने के लिए समर्पित कर दिया। उनके उपदेश, विशेष रूप से विपश्यना नामक ध्यान तकनीक, हमारे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन गए हैं, जो हमें वास्तविकता को वैसा ही देखने के लिए मार्गदर्शन करते हैं जैसी वह वास्तव में है, और जीवन के संघर्षों के बीच हमें जागरूकता और शांति की एक गहरी भावना विक

आस्था- जीवन का आधार

  To read this article in English, please click  here आपने मशहूर टीवी चैनल "आस्था" की टैगलाइन तो जरूर सुनी होगी—"आस्था: जीवन का आधार।" लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इस साधारण से वाक्य के पीछे कितनी गहरी सोच छिपी है ?  यह सिर्फ एक नारा नहीं ,  बल्कि जीवन की जड़ों तक पहुँचने का एक प्रयास है। इस एक छोटे से वाक्य में छिपी गहराई को समझने के लिए हमें खुद के भीतर झांकना होगा और जीवन में आस्था के वास्तविक अर्थ को महसूस करना होगा। आस्था जीवन के उस पहलू को छूती है जो अदृश्य है ,  फिर भी हर व्यक्ति उसे अपने ढंग से महसूस करता है। हम एक अग्नोस्टिक एथीस्ट हैं ,  यानी हम ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते। हमें लगता है कि ईश्वर मानव की कल्पना है ,  और वह हमारे जीवन की समस्याओं को सुलझाने के लिए नहीं आता। फिर भी , हम  हर दिन पूजा अवश्य करते हैं ,  मंत्र और श्लोकों का पाठ भी करते हैं। तो आपको लग रहा होगा कि ये कैसी नास्तिकता जो पूजन करें? तो आपको इसे समझने के लिए थोड़ा गहराई से सोचना होगा। यह पूजा किसी चमत्कार की उम्मीद में नहीं ,  बल्कि हमारे लिए एक याद दिलाने वाला अभ्यास है।

एक के लिए विश्वास, दूसरे के लिए अंधविश्वास- दृष्टिकोण की बात

  To read the English version of this article, please click here   क्या आपने कभी सोचा है कि एक साधारण क्रिया, जो कुछ लोगों के लिए पवित्र होती है, दूसरों को तर्कहीन क्यों लगती है? एक आस्थावान व्यक्ति सितारों की ओर दैवीय मार्गदर्शन के लिए देख सकता है, जबकि एक संशयवादी उसी क्रिया को मात्र अंधविश्वास कहकर खारिज कर सकता है। यह विरोधाभास उस कहावत को सार्थक करता है, "एक के लिए धर्म, दूसरे के लिए अंधविश्वास है," जो मानव विश्वास प्रणालियों के बारे में एक मौलिक सत्य उजागर करती है। ऐसे गहरे अंतर क्यों होते हैं? और धर्म और अंधविश्वास के बीच की रेखा आखिर कहाँ खिंची जाती है? आइए इन सवालों की गहराई में जाएँ और धर्म, अंधविश्वास और उन समाजशास्त्रीय दृष्टिकोणों का अन्वेषण करें जो हमारे विचारों को आकार देते हैं। धर्म और अंधविश्वास के बीच पतली रेखा कुछ लोगों के लिए, धर्म नैतिक ढांचा और जीवन के बड़े सवालों के जवाब प्रदान करता है: मैं कौन हूँ? मैं यहाँ क्यों हूँ? मरने पर क्या होता है? दूसरी ओर, अंधविश्वास को अक्सर तर्कहीन माना जाता है, जो अज्ञानता या डर से उत्पन्न होता है और तर्कसंगत आधार की कमी ह

(स्री)लिंग की सामाजिक अवधारणा

मानवता का विभाजन पुरुष और महिला  के रूप में  में 'लिंग' के प्राकृतिक विभाजन पर आधारित है। प्राकृतिक विभाजन प्रकृति में अनुपूरक है जिसका कोई विरोध नहीं है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जो मानव जाति के विकास को सुगम बनाती है। 'लिंग' की अवधारणा अनिवार्य रूप से एक सामाजिक निर्माण है। यह एक पितृसत्तात्मक सामाजिक पैंतरेबाजी का परिणाम है। यदि यह 'बनाया' गया है, तो इसे 'बदला' भी जा सकता है। 'महिलाएं स्वाभाविक रूप से पुरुषों से नीच है'- पुरुषों के पक्ष में यह तर्क रूढ़िवादी सोच प्रदर्शित करता है। शारिरिक लिंग प्राकृतिक भिन्नता है जबकि सामाजिक लिंग पितृसत्तात्मक रूढ़िवाद का परिणाम है जिसे धार्मिक स्वीकृति मिली है। जैसा कि कार्ल मार्क्स ने कहा है- 'धर्म अफीम है', धार्मिक अनुमोदन विकृत विचारों को भी बढ़ावा देने की क्षमता रखता हैं। महिलाओं के प्रति एक उम्र का लंबा वशीकरण, शिक्षा से वंचित रखना, सार्वजनिक जीवन में भाग लेने से निषेध करना उनमे पाई जाने वाली तर्कसंगतता और क्षमता की कमी को दर्शाता है। दुनिया भर की सभ्यताओं में हर समाज का महिला वर्ग हमेशा से अलग-थलग

कन्या'दान' या कन्या'मान'?

हमारा मानना है कि समाज को प्रगतिशील बनाने में विज्ञापन बहुत अहम् भाग निभाते है। हिन्दू-मुस्लिम एकता, नारी-शक्ति आदि विषयों पर कई अच्छे-अच्छे विज्ञापन आए है, जो हमें सोचने पर प्रेरित करते है और सामजिक बदलाव लाने में सफल भी होते है। किन्तु हाल ही में हमने एक विज्ञापन देखा जिसने हमें यह लेख लिखकर, कुछ भ्रांतियां मिटाने पर प्रेरित किया।   हम में से कितने लोग ऐसे हैं जो वाकई परम्पराओं का अर्थ जानकार उन्हें निभाते हैं? बहुत कम। अधिकतम लोग भेड़-बकरी की चाल चलते है- 'हमारी दादी करती थी, हमारी माँ करती है और इसलिए हमें भी करना चाहिए' के भाव से परम्पराओं का निर्वाह करना मूढ़ता है, भेड़-चाल से ज्यादा कुछ नहीं। बदलते समय के साथ परम्पराएं बदलनी चाहिए यह सत्य है, किन्तु हमारी सभ्यता की कुछ परम्पराएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक एवं उचित है कि इन्हे बदलकर अपने-आप को प्रगतिशील दर्शाने का प्रयत्न तुच्छ है।   आपने मान्यवर (परिधान ब्रांड) का कन्यादान पर प्रसारित वह विज्ञापन तो देखा होगा, जिसमे अभिनेत्री आलिया भट्ट द्वारा भांति भांति की बातें कही गई है जैसे- “कन्या कोई धन नहीं है, कन्या कोई दान करने की ची

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता हैं..

  कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता हैं के भगवन होने के बावजूद भी श्रीकृष्ण ने क्यों अपनी दैवी शक्ति दिखाकर अपने नारायण स्वरुप को उजागर करके एक ही परिवार के राजकुमारों के बीच होने वाले द्वेष, शत्रुता एवं घृणा को नहीं रोका? यदि वे विष्णु अवतार थे तो क्यू उन्होंने ऐसी गूढ़, ऐसी प्रकाण कथा को होने दिया? क्यू उन्होंने प्रतीक्षा की के ये भाई आपस में ही लड़ें? कुछ सोचने पर उत्तर मिलता हैं कि हर युग के प्रत्येक पात्र में जैसे गुण होते हैं वैसे ही अवगुण भी होते है. किन्तु हर युग के पात्र आने वाले युग के लिए उदाहरण बन जाते है. यदि श्रीकृष्ण उस युग की नियती को परिवर्तित करते तो आज हम लोग महाभारत से कुछ नहीं सीख पा रहे होते. और फिर इसके उत्तरदायी संभवतः श्रीकृष्ण खुद ही बनते. इसलिए जो हुआ उसे होने देना, और उससे हमें सीखने पर प्रेरित करना ही भगवान ने अपना कर्तव्य जाना.   कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता हैं, कि क्या श्रीकृष्ण की वो चतुराई छल नहीं थी, जब उन्होंने युद्ध के दौरान बिलकुल ऐसे मौके पर शंख नाद कर दिया, जिससे द्रोणाचार्य को युद्धिष्ठिर का अश्वत्थामा की मृत्यु का  समाचार स्पष्ट रूप से सुनाई ही न दे