(स्री)लिंग की सामाजिक अवधारणा
मानवता का विभाजन पुरुष और महिला के रूप में में 'लिंग' के प्राकृतिक विभाजन पर आधारित है। प्राकृतिक विभाजन प्रकृति में अनुपूरक है जिसका कोई विरोध नहीं है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जो मानव जाति के विकास को सुगम बनाती है। 'लिंग' की अवधारणा अनिवार्य रूप से एक सामाजिक निर्माण है। यह एक पितृसत्तात्मक सामाजिक पैंतरेबाजी का परिणाम है। यदि यह 'बनाया' गया है, तो इसे 'बदला' भी जा सकता है। 'महिलाएं स्वाभाविक रूप से पुरुषों से नीच है'- पुरुषों के पक्ष में यह तर्क रूढ़िवादी सोच प्रदर्शित करता है। शारिरिक लिंग प्राकृतिक भिन्नता है जबकि सामाजिक लिंग पितृसत्तात्मक रूढ़िवाद का परिणाम है जिसे धार्मिक स्वीकृति मिली है। जैसा कि कार्ल मार्क्स ने कहा है- 'धर्म अफीम है', धार्मिक अनुमोदन विकृत विचारों को भी बढ़ावा देने की क्षमता रखता हैं।
महिलाओं के प्रति एक उम्र का लंबा वशीकरण, शिक्षा से वंचित रखना, सार्वजनिक जीवन में भाग लेने से निषेध करना उनमे पाई जाने वाली तर्कसंगतता और क्षमता की कमी को दर्शाता है। दुनिया भर की सभ्यताओं में हर समाज का महिला वर्ग हमेशा से अलग-थलग पड़ा हुआ रहा हैं ।
'नारीत्व' की विशेषता महिलाओं के लिए समझे जाने वाले गुणों से है- भावनात्मक, दयालु, विनम्र, समर्पित और सभी से महत्वपूर्ण- 'कमजोर'। 'लिंग' की सामाजिक रूप से जन्मी अवधारणा, 'स्त्रीत्व' की इस धारणा के बिल्कुल अनुरूप है। दुनिया ने दृढ़ संकल्प, आक्रामकता, प्रभुत्व, नेतृत्व कौशल की महिलाओं को भी देखा है। उन्हें अपवाद के रूप में देखने के बजाय, एक नई दृष्टि को विकसित करने की आवश्यकता है जो महिलाओं को इस तरह के गुणों के समान रूप से हकदार समझती है। केवल इस तरह की दृष्टि विकसित करने से काम पूरा नहीं होता। इसे साकार करने के लिए सकारात्मक उपायों की कमी रह जाती है।
परिवार की संस्था पूरे तर्कपूर्ण संपादन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भूमिका पर ध्यान केंद्रित करते हुए, पारिवारिक निजी दायरे में ध्यान की कमी से निश्चित रूप से एक तरफा विकास होगा। परिवार की संस्था 'पावर रिलेशन’ पर आधारित है जो नारीवाद द्वारा सही रूप से संकलित है। एक ऐसी व्यवस्था जिसमें सार्वजनिक जीवन में महिला की भागीदारी पारिवारिक निजी दायरे में पुरुष समकक्ष के अधीन होती है। ऐसी भागीदारी एक भ्रमपूर्ण और गलत सशक्तिकरण है। सशक्तीकरण की जड़ें बच्ची के जन्म तक पहुँचनी चाहिए और उसकी परवरिश में सशक्तिकरण का योगदान होना चाहिए। यह पूरी तरह से सशक्त होने के बाद ही हम एक ऐसी सभ्यता की कल्पना कर सकते हैं, जो महिलाओं के लिए सही जगह कायम करे।
दुनिया आज महिलाओं के प्रति सहानुभूति से अधिक उनके सशक्तिकरण पर जोर देती है। लिंग के सामाजिक निर्माण को केवल महिलाओं का सशक्तिकरण ही बदल सकता है। महिलाओं की सार्वजनिक जीवन में बढ़ौतरी और प्रगती एवं शैक्षिक और आर्थिक सशक्तिकरण ही आम तौर पर बनी लिंग की अवधारणाओं को दूर कर सकता है।
महिलाओं की स्वाभाविक रूप से कमजोर होने की धारणा को खत्म करने की आवश्यकता हैं। असुरक्षित माहौल पितृसत्तात्मक अवधारणा का नतीजा है जो महिलाओं को उत्पादित करने का काम करता हैं। प्राकृतिक क्या है, इस पर करीबी नजर डालने से पता चलता है कि प्रजनन काल के दौरान जब दो लिंगों का मिलन होता है, तब बिना सहमति के केवल आनंद प्राप्त करने का विकृत दृष्टिकोण तो जानवरों में भी प्रचलित नहीं है। इसलिए, न केवल महिलाओं के सशक्तीकरण की बल्कि पुरुष मानसिकता के सुधार की भी जरुरत हैं। इसे बदलने के लिए पीढ़ियों के प्रयासों की आवश्यकता हो सकती है, लेकिन सही दिशा में सकारात्मक प्रगति- यही समय की मांग है।
लैंगिक समानता का खंडन कहीं और नहीं बल्कि पितृसत्तात्मक सोच में ही मिलता है। लिंग और सेक्स पर तर्कसंगत विचार करें तो हम उनके विभिन्नता के विकास को समझ पाएंगे । प्राकृतिक भिन्नता (सेक्स) को बदला नहीं जा सकता और इसके परिवर्तन की कोई आवश्यकता भी नहीं है, क्योंकि यह संतुलन सही रूप से तर्कहीन पूर्वाग्रह (जो आमतौर पर विध्वंसकारी है) से रहित है। यह पूरक है और विरोधाभासी या विरोधी नहीं है। इसके विपरीत, अपरिहार्य रूप से समाज के एक वर्ग के विकृत हितों को बढ़ावा देने के लिए 'लिंग' को अलग ढंग से विकसित किया जाता है। किसी भी विचारधारा के साथ आने वाली ज्यादतियों पर रोक लगाते हुए, मानवता को यह समझना होगा- जो कट्टरपंथी नारीवाद कहता हैं - "नारी पैदा नहीं होती अपितु वह बनाई जाती है!"
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