कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता हैं के भगवन होने के बावजूद भी श्रीकृष्ण ने क्यों अपनी दैवी शक्ति दिखाकर अपने नारायण स्वरुप को उजागर करके एक ही परिवार के राजकुमारों के बीच होने वाले द्वेष, शत्रुता एवं घृणा को नहीं रोका? यदि वे विष्णु अवतार थे तो क्यू उन्होंने ऐसी गूढ़, ऐसी प्रकाण कथा को होने दिया? क्यू उन्होंने प्रतीक्षा की के ये भाई आपस में ही लड़ें? कुछ सोचने पर उत्तर मिलता हैं कि हर युग के प्रत्येक पात्र में जैसे गुण होते हैं वैसे ही अवगुण भी होते है. किन्तु हर युग के पात्र आने वाले युग के लिए उदाहरण बन जाते है. यदि श्रीकृष्ण उस युग की नियती को परिवर्तित करते तो आज हम लोग महाभारत से कुछ नहीं सीख पा रहे होते. और फिर इसके उत्तरदायी संभवतः श्रीकृष्ण खुद ही बनते. इसलिए जो हुआ उसे होने देना, और उससे हमें सीखने पर प्रेरित करना ही भगवान ने अपना कर्तव्य जाना.
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता हैं, कि क्या श्रीकृष्ण की वो चतुराई छल नहीं थी, जब उन्होंने युद्ध के दौरान बिलकुल ऐसे मौके पर शंख नाद कर दिया, जिससे द्रोणाचार्य को युद्धिष्ठिर का अश्वत्थामा की मृत्यु का समाचार स्पष्ट रूप से सुनाई ही न दें और पुत्र अश्वत्थामा की मृत्यु के उन्माद में गुरु द्रोण की पराजय हो जाए? द्रोणाचाया की पराजय भगवान की कोई चाल नहीं थी. गुरु द्रोण ने सदैव्य अपने अंतर्मनp.ej के सत्य को दबाया. उनका ह्रदय उन्हें कहता था की एकलव्य को शिक्षा प्रदान करें, उनका ह्रदय उन्हें यह भी कहता था कि कर्ण को शिक्षा दें, किन्तु उन्होंने नहीं सुना. उनका ब्राह्मण धर्म उन्हें युद्ध में लड़ने से रोकता था, वे नहीं मानें. उनका सत्य उनको अभिमन्यु का वध करने से भी रोकता था, वो सत्य उनके ह्रदय से निकलकर उनके कानों तक पहुंचा, किन्तु जिसने कभी सत्य की सुनी ही नहीं, वे तब भी नहीं सुन पाते. उन्हें कोई अधिकार नहीं था सत्य सुनने का. उनके कानों को कई अवसर मिलें थे सत्य सुनने के, किन्तु नहीं, उन्होंने कभी सुना ही नहीं. और फिर एक बार सत्य युधिष्ठिर के मुख से निकला किन्तु वो उनके कानों तक पहुँच ही नहीं पाया. ये भगवान की कोई योजना नहीं यद्यपि सत्य का प्रतिशोध था.
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता हैं कि क्यू अर्जुन की प्रतिज्ञा पूरी करवाने के लिए भगवान ने असमय ही सूर्यास्त करवा दिया? पांडवों को विजय दिलाने के लिए सुदर्शन से सूर्य को ढँक दिया ताकि अर्जुन जयद्रथ का वध कर सकें? क्या वह धूर्तता नहीं थी? कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता हैं... किन्तु फिर मनन करने पर यह समझ आता हैं कि जब जब कोई ऐसा अधर्म होता हैं, जिससे पूरा समाज लज्जित हो, तो पूरा ब्रम्हांड सधर्म से उत्तर देता हैं. और युद्ध के नियमों का उलंघन करके, छल से किया गया अभिमन्यु का वध एक ऐसा ही अधर्म था, जो भूमि और आकाश दोनों के अस्तित्व पर लांछन लगा रहा था. सृष्टि प्रतिशोध लेती हैं, कभी समय पर तो कभी विलम्भ से. सूर्यदेव भी अपने पुत्र कर्ण के किए पर व्याकुल थे. वे जानते थे की अभिमन्यु जैसे शूरवीर के साथ जो हुआ वो एक बहुत बड़ा अधर्म था इसलिए उन्होंने अपना कर्तव्य किया.
द्रौपदी कि प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए भगवान ने युद्ध के दौरान दुर्योधन की जंघा की ओर इशारा करते हुए अर्जुन को उसे तोड़ने के संकेत दिए. कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता हैं कि क्या दुर्योधन जैसे अप्रतिम योद्धा का इस तरह श्रीकृष्ण के संकेत पर तड़प-तड़प कर मरना सही था? पुरुषों से भरी सभा में द्रौपदी का अपमान सही नहीं था, सिंघासन की लालसा में भाइयों से घृणा सही नहीं थी, पग पग पर दुर्योधन द्वारा किए अधर्मों की सज़ा तो उसे मिलनी ही थी. उस दिन दुर्योधन की जंघा नहीं बल्कि अधर्म का आदिपत्य टूटा था.
जब द्रौपदी के साथ चीरहरण जैसा निंदनीय कर्म हो रहा था, तब श्रीकृष्ण कहाँ थे? कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता हैं... तब यह उत्तर मिलता हैं कि यदि हम अपने आप को नियती के सहारे छोड़ दें, तो नियती भी नहीं संभालेगी. हर मनुष्य को जीवन में अवसर आते हैं की वे अपने जीवन की दिशा को बदल सकें, बस कोई साहस ही नहीं करता कि वे कुछ कर पाएं. अन्याय एवं अत्याचार के विरोध में खड़े होना, डटकर लड़ना और अवांछित परम्पराओं को बदलना हम कैसे सीखते? इसलिए भगवान ने द्रौपदी को अपने अपमान के प्रतिकार स्वरुप क्रोधित हो कौरवों के विनाश की प्रतिज्ञा लेने पर प्रेरित किया.
यदि हम सीखने की इच्छा रखें, तो श्रीकृष्ण हर युग में हमें योग्य राह दिखाने जरूर प्रकट होते हैं. क्यूंकि वे यह वादा कर गए हैं कि....
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
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